संस्कृत से बनी हिंदी भाषा
संस्कृत से बनी हिंदी भाषा
संस्कृत दुनिया की सबसे प्राचीन भाषाओं में एक है। इसकी शब्द-संरचना इतनी तर्कपूर्ण है कि कभी-कभी संदेह होता है कि क्या हजारों साल पहले मानवों द्वारा बनाई गयी भाषा भी इतनी विद्वत्ता भरी हो सकती है। यदि हाँ, तो निश्चित ही वह काल इतना पिछड़ा नहीं था जितना हम सोचते हैं।
खैर, अब हम इक्कीसवीं सदी में हैं और भारत की अधिकतर आबादी हिंदी बोलती या समझती है। हिंदी संस्कृत का ही नया रूप है जो सदियों तक इस भाषा में जुड़ती जा रही अशुद्धियों और सरलीकरण की कोशिशों से बना है। बाद के हिंदी शब्द अंग्रेज़ी, उर्दू और स्वयं से भी प्रेरित हैं, पर इसका बड़ा आधार संस्कृत ही है। विकास के इन्हीं चरणों से हम आज आपको रूबरू कराएँगे।
वैदिक संस्कृत
ईसा से 2000 वर्ष (या और अधिक) वर्ष पूर्व तक इस भाषा का प्रयोग आर्य लोग किया करते थे। यह संस्कृत से भी पहले बोली जाती थी। जहाँ तक अनुमान है, इस प्राचीन भाषा का यह रूप बहुत अधिक परिपक्व नहीं रहा होगा।
संस्कृत
पाणिनि ने लगभग 500 ईसा पूर्व ‘अष्टाध्यायी’ की रचना की, जिसे पाणिनीय व्याकरण भी कहते हैं। इसे संस्कृत के विकास में एक बड़ा कदम माना जा सकता है, क्योंकि इससे भाषा में एकरूपता आ गयी।
संस्कृत हिन्दू, जैन, बौद्ध आदि कई सभ्यताओं के लिखित अभिलेखों में अधिकता में प्रयोग की गयी भाषा है। वैदिक संस्कृत के सुदृढ़ होने पर यह बनी और मध्य व दक्षिण-पूर्व एशिया में बुद्धिजीवी इसका प्रयोग करने लगे। वैदिक संस्कृत के उलट संस्कृत के इस रूप का प्रयोग उच्च वर्ग तक सीमित हो गया और यह सामान्य से खास लोगों की भाषा बन गयी। लगभग 100 ईसा पूर्व तक यह चलन में थी।
संस्कृत को देवनागरी और कुछ अन्य प्राचीन लिपियों में लिखा जाता रहा है और अब इसे मुख्यतः देवनागरी में ही लिखा जाता है। भारत ने इसको संविधान में दर्ज 22 मुख्य भाषाओं की सूची में शामिल किया है।
प्राकृत भाषाएँ
जैसे-जैसे संस्कृत की पहुँच सीमित होती गयी, अन्य स्थानीय भाषाएँ जन्म लेती गयीं। यह भाषाएँ ‘प्राकृत’ यानी जो भाषाएँ स्वाभाविक बोल-चाल में इस्तेमाल की जा सकें, कही जाने लगीं।
पालि
पालि इस कड़ी में पहली भाषा थी, जिसे ‘पहली प्राकृत’ का दर्जा भी दिया जाता है। मागधी या पालि धीरे-धीरे मगध और आस-पास के भारतीय राज्यों में बोलने में प्रयुक्त होने लगी। श्रीलंका से लेकर मध्य भारत तक पालि भाषा का मौखिक रूप से विस्तार हो रहा था, पर इसमें लेखन को प्रोत्साहन बौद्ध अनुयायियों ने दिया। इसे लिखने के लिए ब्राह्मी, खरोष्ठी आदि लिपियों का प्रयोग होता था।
पहली शताब्दी ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व से 100 ईस्वी तक पालि का बोलचाल, साहित्य, राजनीति और अन्य क्षेत्रों में प्रयोग हुआ।
दूसरी प्राकृत भाषाएँ
पालि में लेखन प्रारम्भ होने के बाद क्षेत्रीय साहित्यकार इसमें धीरे-धीरे बदलाव करते गए, जिससे प्राकृत की दूसरी पीढ़ी तैयार हुई। इसकी मुख्यतः पांच शाखाएं मानी जाती हैं – महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, अर्द्धमागधी, पैशाची।
क्षेत्रों के अनुसार बनी इन भाषाओं के नए रूपों को तो शायद आप जानते भी होंगे।
उदाहरण के लिए –
महाराष्ट्री से मराठी का जन्म हुआ।
पैशाची, जो पंचनदप्रदेश (पंजाब) की तरफ बोली जाती थी, लहन्दा और पंजाबी भाषा का आधार बनी।
शौरसेनी (शूरसेन के क्षेत्र की भाषा) अनेकों भाषाओं में परिवर्तित हो गयी, जैसे – गुजराती, राजस्थानी, पश्चिमी हिंदी, पहाड़ी इत्यादि।
मागधी भी धीरे-धीरे राज्यों के साथ विभक्त होती गयी और असमी, बिहारी, उड़िया, मागधी आदि में टूट गयी।
अर्द्धमागधी से पूर्वी हिंदी का जन्म हुआ।
अपभ्रंश (प्राचीन हिंदी)
जैसा कि नाम से ही विदित है, अपभ्रंश टूटी-फूटी हिंदी के लिए प्रयोग किया जाता था, जिसे प्राचीन हिंदी भी कह सकते हैं। इसके तीन रूप थे – नागर, उपनागर और ब्राचड़। लगभग 1000 या 1050 ईसवी तक इसका प्रयोग हुआ।
अपभ्रंश धीरे-धीरे बढ़ते प्रयोग से व्यवस्थित होती गयी और अंत में खड़ी बोली बन गयी।
खड़ी बोली (आधुनिक हिंदी)
प्रान्तों, क्षेत्रों, राज्यों आदि के अनुसार बहुत सी भाषाएँ 14वीं सदी तक पनपने लगीं थीं। यह अपभ्रंश की ही वंशज थीं। काव्य और लेखन, दोनों में ही इन भाषाओं का खूब प्रयोग होने लगा। खड़ी बोली या आधुनिक हिंदी भी इन्हीं में से एक थी।
हिंदी नागर और अर्धमागधी अपभ्रंशों से मिलकर बनी है।
15वीं सदी की शुरुआत से पहले हिंदी में दोहों, चौपाइयों, छंदों, कहानियों, गाथाओं आदि का लेखन शुरू हो गया था, जिससे इसके विकास को गति मिली। मुग़लों के भारत पर दशकों तक आधिपत्य के कारण उर्दू के शब्दों का मिश्रण इसमें होता गया, जिसकी वजह से अंतरराष्ट्रीय तौर पर हिंदी के उर्दू-मिश्रित रूप को ‘हिन्दुस्तानी’ कहा जाने लगा।
हिंदी में काव्य के मुकाबले गद्य लेखन शुरू होने में बहुत अधिक समय लगा और लगभग 18वीं सदी में अच्छा साहित्य बनना प्रारम्भ हुआ।
हिन्दी भाषा का विकास
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