हिंदी वर्ण
हिंदी वर्ण की परिभाषा – हिंदी भाषा में प्रयुक्त सबसे छोटी ध्वनि वर्ण कहलाती है। यह मूल ध्वनि होती है, इसके और खण्ड नहीं हो सकते। जैसे-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, क्, ख् आदि।
जैसे ‘सवेरा हुआ’, इस वाक्य में दो शब्द है, ‘सवेरा’ और ‘हुआ’। ‘सवेरा’ शब्द में साधारण रूप से तीन ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं- स, वे, रा। इन तीन ध्वनियों में से प्र्यत्येक ध्वनि के खण्ड हो सकते हैं। ‘स’ में दो ध्वनियाँ हैं- स्, अ और इनके कोई और खण्ड नहीं हो सकते, इसीलिए ‘स्’ और ‘अ’ मूल या सबसे छोटी ध्वनियाँ हैं। यह मूल या सबसे छोटी ध्वनियाँ ही वर्ण कहलाती हैं। इस तरह ‘सवेरा’ शब्द में स्, अ, व्, ए, र्, आ- यह छह मूल ध्वनियाँ हैं तो ‘हुआ’ शब्द में ह्, उ, आ- यह तीन मूल ध्वनियाँ या वर्ण हैं।
हिंदी वर्णमाला- वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते हैं। हिंदी वर्णमाला में 44 वर्ण हैं। उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिंदी वर्णमाला के दो भेद किए गए हैं – स्वर एवं व्यंजन।
स्वर– जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता हो और जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक हों, वे स्वर कहलाते है। यह संख्या में ग्यारह हैं-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।
उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गए हैं – ह्रस्व स्वर, दीर्घ स्वर एवं प्लुत स्वर।
ह्रस्व स्वर– जिन स्वरों के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। यह चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं।
दीर्घ स्वर– जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। यह हिंदी में सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
विशेष – दीर्घ स्वरों को ह्रस्व स्वरों का दीर्घ रूप नहीं समझना चाहिए। यहां दीर्घ शब्द का प्रयोग उच्चारण में लगने वाले समय को आधार मानकर किया गया है।
प्लुत स्वर – जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है।
मात्राएँ – स्वरों के बदले हुए स्वरूप को मात्रा कहते हैं। स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं:-
स्वर मात्राएँ
अ – कम (अ वर्ण (स्वर) की कोई मात्रा नहीं होती)
आ ा – काम
इ ि – किसलय
ई ी – खीर
उ ु – गुलाब
ऊ ू – भूल
ऋ ृ – तृण
ए े – केश
ऐ ै – है
ओ ो – चोर
औ ौ – चौखट
व्यंजनों का अपना स्वरूप निम्नलिखित हैं- क् च् छ् ज् झ् त् थ् ध् आदि।
अ लगने पर व्यंजनों के नीचे का (हल) चिह्न हट जाता है। तब यह इस प्रकार लिखे जाते हैं –
क च छ ज झ त थ ध आदि।
व्यंजन – जिन वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं। अर्थात व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। यह संख्या में 33 हैं। इसके निम्नलिखित तीन भेद हैं – स्पर्श, अंतःस्थ एवं ऊष्म।
स्पर्श – इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है और हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग का नाम पहले वर्ग के अनुसार रखा गया है। जैसे:-
कवर्ग- क् ख् ग् घ् ड़्
चवर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्
टवर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् (ड़् ढ्)
तवर्ग- त् थ् द् ध् न्
पवर्ग- प् फ् ब् भ् म्
अंतःस्थ – यह निम्नलिखित चार हैं:-
य् र् ल् व्
ऊष्म – यह निम्नलिखित चार हैं:-
श् ष् स् ह्
जहाँ भी दो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिल जाते हैं वह संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं, किन्तु देवनागरी लिपि में संयोग के बाद रूप-परिवर्तन हो जाने के कारण इन तीन को गिनाया गया है। यह दो-दो व्यंजनों से मिलकर बने हैं। जैसे:-
क्ष=क्+ष अक्षर
त्र=त्+र नक्षत्र
ज्ञ=ज्+ञ ज्ञान
कुछ लोग क्ष् त्र् और ज्ञ् को भी हिंदी वर्णमाला में गिनते हैं, पर यह संयुक्त व्यंजन हैं। अतः इन्हें वर्णमाला में गिनना उचित प्रतीत नहीं होता।
संस्कृत में स्वरों को अच् और व्यंजनों को हल् कहते हैं। व्यंजनों में दो वर्ण और होते हैं – अनुस्वार और विसर्ग।
अनुस्वार – इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है। इसका चिन्ह (ं) है। जैसे- सम्भव=संभव, सञ्जय=संजय, गड़्गा=गंगा।
विसर्ग – इसका उच्चारण ह् के समान होता है। इसका चिह्न (:) है। जैसे-अतः, प्रातः।
अनुनासिक – हर वर्ग के अंतिम वर्ण अनुनासिक कहलाता है, क्योंकि इसका उच्चार नासिका (नाक) से किया जाता है, इसके लिए स्वर के ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगा दिया जाता है। जैसे-हँसना, आँख। लेकिन आजकल आधुनिक पत्रकारिता में सुविधा और स्थान की दृष्टि से चंद्रबिन्दु को लगभग हटा दिया गया है। उसकी जगह सिर्फ़ बिन्दु ( Ç) लगाया जाता है, लेकिन भाषा की शुद्धता की दृष्टि से चन्द्रबिन्दु लगाया जाना चाहिए।
हिंदी वर्णमाला में 11 स्वर तथा 33 व्यंजन गिनाए जाते हैं, परन्तु इनमें ड़्, ढ़् अं तथा अः जोड़ने पर हिंदी के वर्णों की कुल संख्या 48 हो जाती है।
हलंत – जब कभी व्यंजन का प्रयोग स्वर से रहित किया जाता है तब उसके नीचे एक तिरछी रेखा (्) लगा दी जाती है। यह रेखा हल कहलाती है। हलयुक्त व्यंजन हलंत वर्ण कहलाता है। जैसे:-सतत्
वर्णों के उच्चारण – स्थान – मुख के जिस भाग से जिस वर्ण का उच्चारण होता है उसे उस वर्ण का उच्चारण स्थान कहते हैं।
उच्चारण स्थान तालिका
क्रम वर्ण उच्चारण-स्थान श्रेणी
१. अ आ क् ख् ग् घ् ड़् ह् विसर्ग कंठ और जीभ का निचला भाग कंठस्थ
२. इ ई च् छ् ज् झ् ञ् य् श तालु और जीभ तालव्य
३. ऋ ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष् मूर्धा और जीभ मूर्धन्य
४. त् थ् द् ध् न् ल् स् दाँत और जीभ दंत्य
५. उ ऊ प् फ् ब् भ् म दोनों होंठ ओष्ठ्य
६. ए ऐ कंठ तालु और जीभ कंठतालव्य
७. ओ औ कंठ जीभ और होंठ कंठोष्ठ्य
८. व् दाँत जीभ और होंठ दंतोष्ठ्य
विवादास्पद वर्तनियाँ
की और कि में अंतर :-
कि और की दोनों अलग अलग हैं। इनका प्रयोग भी अलग अलग स्थानों पर होता है। एक के स्थान पर दूसरे का प्रयोग ठीक नहीं समझा जाता है।
कि दो वाक्यों को जोड़ने का काम करता है। जैसे
उसने कहा कि कल वह नहीं आएगा। वह इतना हँसा कि गिर गया। यह माना जाता है कि कॉफ़ी का पौधा सबसे पहले ६०० ईस्वी में इथियोपिया के कफ़ा प्रांत में खोजा गया था।
की संबंध बताने के काम आता है। जैसे
राम की किताब, सर्दी की ऋतु, सम्मान की बात, वार्ता की कड़ी।
ये तथा यी के स्थान पर ए तथा ई :-
आजकल विभिन्न शब्दों में ये तथा यी के स्थान पर ए तथा ई का प्रयोग भी किया जाता है। उदाहरण
गयी तथा गई, आयेगा तथा आएगा आदि।
आधुनिक हिंदी में दिखायें, हटायें आदि के स्थान पर दिखाएँ, हटाएँ आदि का प्रयोग होता है। यदि ये और ए एक साथ अंत में आएँ जैसे किये गए हैं तो पहले स्थान पर ये और दूसरे स्थान पर ए का प्रयोग होता है।
परन्तु संस्कृत से हिंदी में आने वाले शब्दों (स्थायी, व्यवसायी, दायित्व आदि) में 'य' के स्थान पर 'इ' या 'ई' का प्रयोग अमान्य है।
कीजिए या करें :-
सामान्य रूप से लिखित निर्देश के लिए करें, जाएँ, पढें, हटाएँ, सहेजें इत्यादि का प्रयोग होता है। कीजिए, जाइए, पढ़िए के प्रयोग व्यक्तिगत हैं और अधिकतर एकवचन के रूप में प्रयुक्त होते हैं।
जैसे कि, जो कि :-
यह दोनों ही पद बातचीत में बहुत प्रयोग होते हैं और इन्हें सामान्य रूप से गलत नहीं समझा जाता है, लेकिन लिखते समय जैसे कि और जो कि दोनों ही गलत समझे जाते हैं। अतः जैसे और जो के बाद कि शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है।
विराम चिन्ह :-
सभी विराम चिन्हों जैसे विराम, अर्ध विराम, प्रश्न वाचक चिह्न आदि के पहले खाली जगह छोड़ना गलत है। खाली जगह विराम चिन्हों के बाद छोड़नी चाहिए। हिन्दी में किसी भी विराम चिह्न यथा पूर्णविराम, प्रश्नचिह्न आदि से पहले रिक्त स्थान नहीं आता। आजकल कई मुद्रित पुस्तकों, पत्रिकाओं में ऐसा होने के कारण लोग ऐसा ही टंकित करने लगते हैं जो कि गलत है। किसी भी विराम चिन्ह से पहले रिक्त स्थान नहीं आना चाहिये।
हिन्दी में लिखते समय देवनागरी लिपि के पूर्ण विराम (।) चिन्ह की जगह अंग्रेजी के full stop (.) का प्रयोग करना गलत है।
समुच्चय बोधक और संबंध बोधक शब्दों का प्रयोग :-
संबंध बोधक तथा दो वाक्यों को जोड़ने वाले समुच्चय बोधक शब्द जैसे ने, की, से, में इत्यादि अगर संज्ञा के बाद आते हैं तो अलग लिखे जाते हैं और सर्वनाम के साथ आते हैं तो साथ में। उदाहरण
अक्षरग्राम आधुनिक भारतीय स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है। इसमें प्राचीन पारंपरिक शिल्प को भी समान महत्त्व दिया गया है। संस्थापकों ने पर्यटकों की सुविधा का ध्यान रखा है। हमने भी इसका लाभ उठाया, पूरी यात्रा में किसीको कोई कष्ट नहीं हुआ। केवल सुधा के पैरों में दर्द हुआ, जो उससे सहन नहीं हुआ। उसका दर्द बाँटने के लिए माँ थी। उसने, उसको गोद में उठा लिया।
अनुस्वार तथा पञ्चमाक्षर
पञ्चमाक्षरों के नियम का सही ज्ञान न होने से बहुधा लोग इनके आधे अक्षरों की जगह अक्सर 'न्' का ही गलत प्रयोग करते हैं जैसे 'पण्डित' के स्थान पर 'पन्डित', 'विण्डोज़' के स्थान पर 'विन्डोज़', 'चञ्चल' के स्थान पर 'चन्चल' आदि। ये अधिकतर अशुद्धियाँ 'ञ्' तथा 'ण्' के स्थान पर 'न्' के प्रयोग की होती हैं।
नियम: वर्णमाला के हर व्यञ्जन वर्ग के पहले चार वर्णों के पहले उस वर्ग का पाँचवा वर्ण आधा (हलन्त) होकर लगता है। अर्थात कवर्ग (क, ख, ग, घ, ङ) के पहले चार वर्णों से पहले आधा ङ (ङ्), चवर्ग (च, छ, ज, झ, ञ) के पहले चार वर्णों से पहले आधा ञ (ञ्), टवर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) के पहले चार वर्णों से पहले आधा ण (ण्), तवर्ग (त, थ, द, ध, न) के पहले चार वर्णों से पहले आधा न (न्) तथा पवर्ग (प, फ, ब, भ, म) के पहले चार वर्णों से पहले आधा म (म्) आता है। उदाहरण
कवर्ग - पङ्कज, गङ्गा
चवर्ग - कुञ्जी, चञ्चल
टवर्ग - विण्डोज़, प्रिण्टर
तवर्ग - कुन्ती, शान्ति
पवर्ग - परम्परा, सम्भव
आधुनिक हिन्दी में पञ्चमाक्षरों के स्थान पर सरलता एवं सुविधा हेतु केवल अनुस्वार का प्रयोग भी स्वीकार्य माना गया है। जैसे
पञ्कज - पंकज, शान्ति - शांति, परम्परा - परंपरा।
परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि पुरानी पारम्परिक वर्तनियाँ गलत हैं, नयी अनुस्वार वाली वर्तनियों को उनका विकल्प स्वीकारा गया है, पुरानी वर्तनियाँ मूल रुप में अधिक शुद्ध हैं। पञ्चमाक्षर के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग देवनागरी की सुन्दरता को कम करता है तथा शब्द का उच्चारण भी पूर्णतया शुद्ध नहीं रह पाता।
श्र और शृ
श्र तथा शृ भिन्न हैं। श्र में आधा श और र मिला हुआ है जैसे श्रम में। शृ में पूरे श में ऋ की मात्रा लगी है जैसे शृंखला या शृंगार में। अधिकतर सामान्य लेखन तथा कम्प्यूटर/इण्टरनेट पर श्रृंखला या श्रृंगार जैसे अशुद्ध प्रयोग देखने में आते हैं। श्रृ लिखने पर देखा जा सकता है कि इसमें आधा श् + र + ऋ की मात्रा है जो सही नहीं हैं क्योंकि शृंगार और शृंखला में र कहीं नहीं होता। यह अशुद्धि इसलिए होती है क्योंकि पारंपरिक लेखन में श के साथ ऋ जुड़ने पर जो आकार बनता था वह अधिकतर यूनिकोड फॉण्टों में प्रदर्शित नहीं होता। शृ, आदि श से बनने वाले संयुक्त वर्णों को संस्कृत २००३ नामक यूनिकोड फॉण्ट सही तरीके से प्रदर्शित करता है। उस आकार में श में ऋ जोड़ने पर प्रश्न वाले श की तरह श आधा दिखाई देता है और नीचे ऋ की मात्रा जुड़ती है, इसमें अतिरिक्त आधा र नहीं होता।
श्र = श् + र् + अ जबकि शृ = श् + ऋ
"श्रृ" लिखना गलत है, क्योंकि श्रृ = श् + र् + ऋ = श् + रृ
रृ का हिन्दी या संस्कृत में प्रयोग नहीं होता।
आइए, हिंदी की ध्वनियों का उनके उच्चारण प्रयत्न के आधार पर वर्गीकरण करते हैं-
स्पर्श- स्पर्श ध्वनियाँ वे ध्वनियाँ है, जिसके उच्चारण में मुख-विवर में कहीं न कहीं हवा को रोका जाता है और हवा बिना किसी घर्षण के मुँह से निकलती है। प, फ, ब, भ, य, द, ध, ट, ठ, ड, ढ, क, ख, ग, घ आदि के उच्चारण में हवा रुकती है। अतः इन्हें स्पर्श ध्वनियाँ कहते है। अंग्रेज़ी में इन्हें स्टाप या एक्सप्लोसिव ध्वनियाँ तथा हिंदी में स्फोट ध्वनियाँ भी कहते हैं।
स्पर्श संघर्ष- जिन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा तालु के स्पर्श के साथ-साथ कुछ घर्षण भी करती हुई आए तो ऐसी ध्वनियाँ स्पर्श संघर्षी ध्वनियाँ होती है। जैसे – च, छ, ज, झ।
संघर्षी- वह व्यंजन जिसके उच्चारण में वायु मार्ग संकुचित हो जाता है और वायु घर्षण करके निकलती है। जैसे – फ, ज, स
लुंठित- इन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वानोक में लुण्ठन या आलोड़न क्रिया होती है। हिंदी की ‘र’ ध्वनि प्रकम्पित या लुंठित वर्ग में आती है।
पार्श्विक- हिंदी की ‘ल’ ध्वनि पार्श्विक ध्वनि है, किंतु जिह्वानोक के दोनों तरफ से हवा के बाहर निकलने का रास्ता है। दोनों तरफ (पार्श्वो) से हवा निकलने के कारण इन ध्वनियों को पार्श्विक ध्वनियाँ कहा जाता है।
उत्क्षिप्त- उत्क्षिप्त ध्वनियाँ वे ध्वनियाँ हैं जिनके उच्चारण में जिह्वानोक जिह्वाग्र को मोड़कर मूर्धा की ओर ले जाते है और फिर झटके के साथ जीभ को नीचे फेंका जाता है। हिंदी की ‘ड’, ‘ढ’ आदि ध्वनियाँ उत्क्षिप्त हैं।
नासिक्य- इन व्यंजनों के उच्चारण में कोमलतालु नीचे झुक जाती है। इस कारण श्वासवायु मुख के साथ-साथ नासारन्ध्र से बाहर निकलती है। इसीलिए व्यंजनों में अनुनासिकता आ जाती है। हिंदी में नासिक्य व्यंजन इस प्रकार है – म, म्ह, न, न्ह, ण, ङ।
आइए, अब वायु की शक्ति के आधार पर हिंदी की ध्वनियाँ का वर्गीकरण करते हैं-
अल्पप्राण- जिन ध्वनियों के उच्चारण में फेफड़ों से कम श्वास वायु बाहर निकलती है, उन्हें अल्पप्राण कहते है। हिंदी की प, ब, त, द, च, ज, क, ल, र, व, य आदि ध्वनियाँ अल्पप्राण है।
महाप्राण- जिन ध्वनियों के उच्चारण में फेफड़ों से अधिक श्वास वायु बाहर निकलती है, उन्हें महाप्राण कहते है। जैसे—ख, घ, फ, भ, थ, ध, छ, झ आदि महाप्राण है।
आइए, घोषत्व की दृष्टि से हिंदी की ध्वनियों को जानते हैं-
अघोष- जिन ध्वनियों के उच्चारण में फेफड़ों से श्वास वायु स्वर-तंत्रियों से कंपन करती हुई नहीं निकलती अघोष कहलाती है। जैसे- क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, श, ष, स।
सघोष- जिन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास वायु स्वर-तंत्रियों में कंपन करती हुई निकलती है, उन्हें सघोष कहते है। जैसे – ग, घ, ङ, ञ, झ, म, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म तथा य, र, ल, व, ड, ढ ध्वनियाँ सघोष है।
आइए, हिंदी की ध्वनियों की कुछ अन्य विशेषताएँ भी समझते हैं-
दीर्घता – किसी ध्वनि के उच्चारण में लगने वाले समय को दीर्घता कहा जाता है। किसी भाषा मे दीर्घता का कोई सामान्य रूप नहीं होता। दीर्घता का अर्थ है किसी ध्वनि का अविभाज्य रूप में लंबा होना। हिंदी व अंग्रेज़ी में जहाँ ह्रस्व व दीर्घ दो वर्ग मिलते है, वहीं संस्कृत में ह्रस्व, दीर्घ व प्लुत तीन मात्राओं की चर्चा की गई है।
बलाघात- ध्वनि के उच्चारण में प्रयुक्त बल की मात्रा को बलाघात कहते है। बलाघात युक्त ध्वनि के उच्चारण के लिए अधिक प्राणशक्ति अर्थात् फेफड़ो से निकलने वाली वायु का उपयोग करना पड़ता है। बलाघात की एकाधिक सापेक्षिक मात्राएँ मिलती है- (क) पूर्ण बलाघात (ख) दुर्बल बलाघात।
लगभग सभी भाषाओं में वाक्य बलाघात का प्रयोग होता है। साधारणतः संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण और क्रिया विशेषण बलाघात युक्त होते है और अव्यय तथा परसर्ग बलाघात वहन नहीं करते है। अंग्रेज़ी में शब्द बलाघात और वाक्य बलाघात दोनों मिलते हैं। हिंदी में बलाघात का महत्व शब्द की दृष्टि से नहीं अपितु वाक्य की दृष्टि से होता है। यथा – यह मोहन नहीं राम है। यहाँ विरोध के लिए राम पर बल दिया जाता है। हिंदी में बल परिवर्तन से शब्द का अर्थ तो नहीं बदलता पर उच्चारण की स्वाभाविकता प्रभावित हो जाती है।
अनुतान – स्वन-यंत्र में उत्पन्न घोष के आरोह-अवरोह के क्रम को अनुतान कहते है। अन्य शब्दों में स्वर-तंत्रियों के कंपन से उत्पन्न होने वाले सुर का उतार चढ़ाव ही अनुतान है। साधारणतः मानव की सुर-तन्त्रियाँ 42 आवृत्ति प्रति सेकेण्ड की न्यूनतम सीमा से लेकर 2400 की अधिकतम सीमा के मध्य कम्पित होती है। कंपन की मात्रा व्यक्ति की आयु व लिंग पर भी निर्भर करती है। सुर-तन्त्रियाँ जितनी पतली व लचीली होंगी कंपन उतना ही अधिक होगा तथा मोटी व लम्बी सुर तन्त्रियों के कंपन की मात्रा कम होंगी। यह कंपन यदि वाक्य के स्तर पर घटता-बढ़ता है तो उसे अनुतान कहा जाता है और जब शब्द के स्तर पर घटित होता है तब उसे तान कहते हैं। अनुतान की दृष्टि से सम्पूर्ण वाक्य को ही एक इकाई के रूप में लिया जाता है, पृथ्क्-पृथ्क् ध्वनियों को नहीं। सुर के अनेक स्तर हो सकते है, परन्तु अधिकांश भाषाओं में उसके तीन स्तर माने जाते हैं – उच्च, मध्य और निम्न।
उदाहरण के लिए हिंदी में निम्नलिखित वाक्य अलग-अलग सुर-स्तरों में बोलने पर अलग-अलग अर्थ देता है:-
वह आ रहा है। (सामान्य कथन), 2. वह आ रहा है? (प्रश्न), 3. वह आ रहा है ! (आश्चर्य)
विवृत्ति – ध्वनि क्रमों के मध्य उपस्थित व्यवधान को विवृत्ति कहा जाता है। वस्तुतः एक ध्वनि से दूसरी ध्वनि पर जाने की (अर्थात् उच्चारण की) दो विधियाँ हैं। अन्य शब्दों में संक्रमण दो प्रकार का होता है। जब एक ध्वनि के बाद दूसरी ध्वनि का उच्चारण अव्यवहृत रूप से किया जाता है, तो उसे सामान्य संक्रमण कहते हैं। इसी को आबद्ध संक्रमण कहा गया है। जब एक ध्वनि के बाद दूसरी ध्वनि का उच्चारण क्रमिक न होकर कुछ व्यवधान के साथ किया जाता है, तब उसे मुक्त संक्रमण कहते हैं। मुक्त संक्रमण ही विवृत्ति है। हिंदी में विवृत्ति के उदाहरण हैं:
तुम्हारे = तुम + हारे, हाथी = हाथ + ही|
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