एचएएल
इसरो
डीआरडीओ
इनमें से कोई नहीं
इसरो के लिए यह बड़ी उपलब्धि है।
दरअसल, पृथ्वी की सतह और चंद्रमा की सतह में बहुत ही ज्यादा अंतर है, इस वजह से रोवर और लैंडर के परीक्षण के लिए आर्टिफीशियल स्वॉयल की जरूरत पड़ती है।
इसरो ने खुद ही क्यों तैयार की ऐसी मिट्टी
आम तौर पर इस तरह की मिट्टी का आयात अमेरिका को करना पड़ता था और यह मिट्टी बहुत महंगी पड़ती है।
पिछले साल अमेरिकी ने चांद की तरह दिखने वाली मिट्टी देने के लिए भारत से एक हजार रुपये प्रति किलो की मांग की थी।
इस रिसर्च में 60 से 70 टन मिट्टी की जरूरत थी।
मतलब कि अमेरिका इस मिट्टी के बदले भारत से करोड़ों रुपये कमाना चाहता था।
कैसे बनी मिट्टी -
भूवैज्ञानिकों ने पाया कि तमिलनाडु में सेलम के पास के दो गांव सीतमपोंडी और कुन्नामलाई में एरोथोसाइट की चट्टानें हैं, जिनसे चंद्रमा की मिट्टी की तरह मिट्टी बनाई जा सकती है।
इस पेटेंट की एप्लीकेशन इसरो ने करीब पांच साल पहले डाली थी।
लेकिन अब फाइनली यह पेटेंट मिल गया है।
यह पेटेंट भारत के अपने अंतरिक्ष अभियानों में आत्मनिर्भर प्रयासों का एक उदाहरण है।
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