भक्ति रस
श्रृंगार रस
करूण रस
शांत रस
जिन विषयों या उद्दीपनों से परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान होता है और अन्य विषयों से वैराग्य हो जाता है वहाँ 'शान्त रस' की निषपत्ति होती है। 'मन रे....................... क्या इतना'। इस पथ में कवि ने तन को कागज के पुतले के समान माना है जो क्षण भर में पानी की बूँदों से नष्ट हो सकता है फिर भी इन तन पर इतना गुमान क्यों ? यहाँ पर कवि तन को छोड़कर परमात्मा के प्रति अनुराग पैदा करता है अत: उपरोक्त पद्य में 'शान्त रस' होगा।
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