जो धनार्जन एवं त्याग दोनों करता है
जो पैसों का कल्याणकारी कार्यों में लगाता है
जो मानवता की सेवा में लगा रहता है
जो सच्चे मनुष्यत्व के लिए कार्य करता है।
उपर्युक्त गद्यांश में लेखक धन को ही सब कुछ नहीं मानता है, धन की पूजा बहुत ही कम जगहों पर देखने को मिलती है, संसार का इतिहास उठाकर देखने पर विदित होता है कि अंत में उसी मनुष्य की पूजा होती है जो सच्चे मनुष्यत्व के लिए कार्य करता है।
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