प्रथम सदी ईसवी में वैष्णव धर्म का प्रचार भारत से बाहर कंबोडिया में हुआ। पूर्व मध्यकाल में कंबोडिया का अंकोरवाट मंदिर, विष्णु का विश्व प्रसिद्ध मंदिर है।
गुप्त सम्राटों का काल वैष्णव (हिन्दू या ब्राह्मण) धर्म की उन्नति के लिये प्रख्यात है। गुप्त शासक ‘परम्परागत’ की उपाधि धारण करते थे। उन्होंने वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया। गुप्तकाल में हिन्दू धर्म से सम्बन्धित अनेक मंदिरों का उल्लेख मिलता है।
विष्णु की प्राचीनतम प्रतिमा मथुरा से प्राप्त है। पहली शताब्दी ई. में मथुरा के समीप मोरा से प्राप्त एक लेख में उल्लिखित है कि तोषा नामक महिला ने पाँच वृष्णि वीरों के प्रतिमाओं की पूजा की। ये पाँच वृष्णि वीर थे - वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और साम्ब।
तमिल प्रदेश में वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार आलवार संतों द्वारा किया गया। आलवार संतों की संख्या 12 बतायी गयी है। आलवारों में मात्र एक महिला संत आंडाल या कोदई थी। विष्णु के प्रति अपनी अपरिमित भक्ति के कारण उसने स्वप्न में उनके साथ विवाह होते हुए देखा।
भागवत धर्म के प्रवर्तक कृष्ण का प्राचीनतम उल्लेख छान्दोग्य उपनिषद् में मिलता है। इसी उपनिषद् में उनके गुरु का नाम घोर अंगिरस बताया गया है। कृष्ण का उल्लेख दो रुपों-देवकी पुत्र एवं गोपीकृष्ण के रुप में मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद् में ही सर्वप्रथम कृष्ण को देवकी पुत्र कहा गया है। गोपीकृष्ण का उल्लेख प्रारम्भिक तमिल कविताओं में मिलता है। जैन परम्परा के अनुसार वासुदेव कृष्ण 22 वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के समकालीन थे।
अवतारवाद का प्रथम उल्लेख भागवत गीता में मिलता है। इसमें विष्णु के दश अवतारों का उल्लेख है। जिसमें दशवां अवतार कल्कि के रुप में होना बाकी है, यद्यपि अमर कोश एवं गीतगोबिन्द में विष्णु के 39 अवतारों का वर्णन है। इन अवतारों के माध्यम से ही भिन्न देवताओं जैसे - परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध आदि को भागवत धर्म में समाहित किया गया है।
भक्ति का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वर उपनिषद् में मिलता है जबकि भगवतगीता में नौ प्रकार की भक्ति का उल्लेख है जिसे नवधा भक्ति कहा जाता है। नवधा भक्ति का वर्णन इस प्रकार से किया गया है -
श्रवणं, कीर्तनं, विष्णोः स्मरणं, पादसेवनं।
अर्चनं, वंदनं, दास्यं, संख्यं, आत्मनिवेदनम्।।
शिव का प्रथम साहित्यक उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। इसमें शिव का उल्लेख ‘रुद्र’ के रुप में है जो उग्रता एवं क्रोध के लिये विख्यात थे। उत्तर वैदिक काल में हमें इनके अन्य नाम शिव, महादेव आदि भी मिलने लगते हैं। तब इनका स्वरुप विनाशकारी के साथ-साथ मंगलकारी भी हो गया।
लकुलीश पाशुपत मत का व्याख्याता था। उसका जन्म गुजरात के कायावरोहण नाम स्थान पर हुआ। ये शिव के 28वें अवतार माने जाते हैं। उन्होंने पंचार्थविद्या नामक ग्रंथ की रचना की।